ओ भाषा कोना बिसरि सकबै ? Gajendra Gajur | Maithili Poem



Gajendra Gajur, Bardibas

सिखलहुँ जे माएक कोखिसँ जन्मैत
नानी-दादीके खिस्सा पिहानी सुनैत
अङना-घर-ओसरामे गुड़कुनिया दैत
दिदीसङ्गे नचैत-गबैत,साथीसङ्गे खेलैत-धूपैत।
ओ भाषा कोना बिसरि सकबै?

माएक दूध पिबैत, सिखने छी जइ भाषाकेँ
दादाक पराती गबैत, सिखने छी जइ भाषाकेँ
बाबूक घुघुआ खेलैत, सिखने छी जइ भाषाकेँ
चकलेट-ललीपप चटैत, सिखने छी जइ भाषाकेँ
ओ भाषा कोना हम छोड़ि देबै?

ई मेघमे बादल कत' जाइ छै माए?
सरुज अइ कोनसँ किए उगै छै दिदी?
दादी किए आँखि मुनि लेलकै बाबू?
लोक मरलाक बाद कत' जाइ छै कका ?
सवालपर सवाल कर' सिखलहुँ जइ भाषामे
ओ भाषा कोना बिसैर सकबै?

आब माएके कोरा छूटि गेलै,आशे जिबै छी खालि
हिन्दी, अङरेजी आ नेपालीएकेँ रटै छी खालि
दिनभरि आन भाषामे अपनाकेँ बेचै छी खालि
कुसियारक खेत परती छोड़ि, चिन्नीलए दोगै छी खालि

अपन पहिचान, आत्मसम्मान कत' हरा गेल?
हम अपने भाषाकेँ कोना मारि सकबै?
हम अपने माएकेँ कोना मारि सकबै?
कहू, ओ भाषा कोना बिसैर सकबै?

- गजेन्द्र गजुर, 
बर्दिवास, महोत्तरी
मैथिली कविता

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